Saturday, 7 May 2016

जिन्हें जौहरी होना था अगर वो बनिया बन जाएँ तो परिणाम क्या होगा?

"एक  व्यक्ति  के  लिए  उसके  माता - पिता  और  शिक्षक  ही  उसके  जीवन  की  नीवं  तैयार  करते  हैं  और  यही  कारन  है  की  वह  जीवन  पर्यन्त  उनके  ऋण  से  उऋण  नहीं  हो  सकता ; हिंदुत्व  ने  इस  तथ्य  को  स्वीकार  किया  है  तभी  हिंदुत्व  में  उपनयन  संस्कार  द्वारा  जनेऊ  के  तीन  धागों  के  माध्यम  से  देव  ऋण , पितृ  ऋण  और  ऋषि  ऋण  को  धारण  करने  की  परंपरा  रही  है।

अतः  समाज  के  किसी  भी  नयी  पीढ़ी के निर्माण की दृष्टि से यह आवश्यक है कि माता  पिता के माध्यम से  सामाजिक परिवेश और शिक्षकों के द्वारा दी जाने वाली ज्ञान और शिक्षा की पद्दत्ति का उचित विकास हो; तभी यथार्थ में  एक बेहतर भविष्य का निर्माण सही अर्थों में संभव है।

परन्तु जब समझ ही विकृत हो और व्यवहारिकता व्यापार के  लाभ की मानसिकता से संक्रमित, रोगी हो तो स्वाभाविक है की कोई भी नयी पीढ़ी जो इन परिवेश में जन्म लेगी वह ऐसी ही बन जायेगी, ऐसे में, जब तक हम समस्या के प्रभाव में उलझे रहेंगे उसके मूल तत्व तक नहीं पहुँच पाएंगे। जिस वजह से समस्या का समाधान असम्भव होगा।

इतना तो सत्य ही है कि पक्के घड़े पर मिटटी नहीं चढ़ती पर इसका यह अर्थ नहीं की यथार्थ में हम उस आदर्श समाज का निर्माण नहीं कर सकते, बस, प्रयास को अपनी प्रक्रिया अपना तरीका बदलना पड़ेगा और फिर असम्भव कुछ भी नहीं होगा सब कुछ संभव होगा।

जिन्हें जौहरी होना था अगर वो बनिया बन जाएँ तो परिणाम क्या होगा? और ऐसे में, गलती किसकी ? व्यक्ति विशेष की या सामाजिक व्यवस्था की ? यही सोच आज वास्तव में हमारे समाज की समस्या है।

अभिभावकों के लिए आज   भविष्य की पीढ़ियां उनके पूँजी के  निवेश की वापसी का एक संसाधन मात्र है जिसके माध्यम से वो अपने और अपने परिवार की सुख, समृद्धि और सुरक्षा को सुनिश्चित करना चाहते हैं जबकि शिक्षा उद्योग  आज व्यवसायिक उपक्रम बन गया है जिसके लिए ज्ञान और सीख से अधिक लागत और लाभ का मह्त्व है, ऐसे में, अगर भविष्य की पीढ़ियां उसी कुंठित सोच के साथ बड़े हो तो गलती किसकी ?

व्यक्तिगत विशिष्टता की पहचान कर उसका उचित पोषण कर विकास  सुनिश्चित करना ही प्रत्येक अभिभावक का दायित्व है; शिक्षा के ज्ञान के द्वारा उन व्यक्तिगत विशिष्टताओं को सबल, आत्म निर्भर व प्रभावशाली बनाने की जिम्मेदारी शिक्षक की होती है पर दुर्भागयवश आज हमारे  समाज  की परिस्थिति ऐसी है  जहाँ लोगों को व्यक्तिगत विशिष्टताओं से मानो शिकायत सी हो गयी है, तभी सामंयकरन की प्रक्रिया द्वारा सभी को साधारण बनाने का प्रयास किया जा रहा है।

जिस विशिष्ट को श्रिष्टि ने सामान्य बनाया था आश्चर्य नहीं की आज हमारे समाज ने उस विशिष्ट को ही अपवाद बना दिया है, ऐसे में, जब तक सामाजिक व्यवस्था के मूल भूत ढांचों में आवश्यक परिवर्तन  न किया जाए  हम  एक  बेहतर  भविष्य  का  निर्माण  कर  ही  नहीं  सकते ; किसी व्यक्ति विशेष अथवा सामाजिक संगठन द्वारा यह अकेले कर पाना संभव नहीं क्योंकि व्यवस्था के प्रावधान ने शक्ति का समर्थ शाशन तंत्र को सौंपा है और इस दृष्टि   से सामाजिक  नेतृत्व  की भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण   है।

जब तक हम वर्तमान  की सहूलियतों  के लिए भविष्य की आवश्यकताओं  से समझौता  करते रहेंगे, ऐसे ही सामाजिक दुर्व्यवस्था  के शिकार होते रहेंगे।  अधिक कुछ नहीं तो कम से कम हम अपने प्रयास से यह तो सुनिश्चित कर ही सकते हैं कि समाज का नेतृत्व उचित हाथों में जाए! इतना अधिकार  तो संविधान  से हम सभी ने पाया है , अगर नहीं, तो सामाजिक विकास की दिशा और दशा से शिकायत करने का हमारा कोई अधिकार नहीं होगा, क्योंकि तब, दोषी और कोई नहीं बल्कि हम स्वयं होंगे!"

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