ज्ञान की तलास में स्कूल गया सोचा यहाँ पर मेरी कुछ समस्याएं हल होगी परन्तु जिंदगी का खेल ही कुछ ऐसा है सुलझने के बजाय उलझती गई ये जिंदगी।
बायोलॉजी के टीचर ने सेल मतलब 'शारीर की कोशिकाएँ' बताई। तो फिजिक्स के टीचर ने सेल मतलब 'बैटरी' बता डाला, इकोनॉमिक्स के टीचर से पूछा सेल मतलब 'बिक्री' कहकर कुछ उलझाया, फिर सोचा चलो हिस्ट्री के टीचर से भी मिल लेते है तो उन्होंने सेल मतलब 'जेल' की कोठरी बता डाली, समस्या बढ़ती रही तो अंग्रेजी के टीचर से ज्ञान लिया तो उन्होंने सेल मतलब 'मोबाइल' कहा अब ऐसी उलझी हुई जिन्दगी के सहारे जीने का प्रयास फिर भी मन नहीं करो उदास।
मैंने तो पढ़ाई ही छोड़ दी यह सोचकर कि जिस स्कूल में पांच शिक्षक एकमत नहीं है उस स्कूल में पढ़ कर क्या होगा ? सच्चा ज्ञान मिला जब पत्नि ने बताया सेल मतलब 'डिस्काउंट' होता है।
अब ऐसी शिक्षा के सहारे यदि कोई ब्राह्मणवाद की बात करे तो इसमे आश्चर्य की क्या बात और करना भी चाहिए। परन्तु सोचने का विषय है कि समाज बिना ब्राह्मण का कैसा होगा? आज भी तो जो अध्यापक है, वैज्ञानिक है, धर्म गुरु है, वह ब्राह्मण ही तो है। सैनिकों और सिपाहियों को क्षत्रिय बोलना पड़ेगा, पूँजीपति व्यापारी वैश्य है, और जो नौकरी कर सेवा दे रहा उसे शुद्र कहने में झुंझलाहट क्यों? जब अभी भी ढांचा कुछ इसी तरह है तो क्या ब्राह्मणवाद सिर्फ भय है? अमानवीय तरीके से आरक्षण का अनुचित लाभ लेने वालो के लिए यह एक परेशानी है, ब्राह्मणों ने तो बगैर कुछ सम्पति लालच के व्यवस्था के लिए अपना जीवन व्यतीत किया अगर आज हम सभी के पास ब्राह्मणों जैसा ज्ञान है तो क्यों नहीं कहते कि आरक्षण उसे जो कमजोर हो संसाधनों से, क्यों अमीर लोग इसका लाभ ले बदनाम ब्राह्मण को करते है? समय मिले तो तनिक सोचें जरूर।
हर कोई चाहता है कि सारी दुनियां उसकी तारीफ़ करें पर यह इच्छा अंतिम संस्कार वाले दिन ही पूरी होती है...। ठीक कहता है अस्मशान कि मंजिल तो तेरी यही थी मुसाफिर सारी उम्र गुजार दी आते आते, जिसके लिए तूने सब कुछ लुटा दिया उसी ने जला दिया तुझे जाते जाते। हम अपनी संतानों को बड़ा बनाने की चाह में खुद इतना गिर जाते है कि हमें नैतिकता का आभास भी नहीं होता, संतान परीक्षा पास हो उसके लिये नक़ल भी कराने पहुँच जाते है। लोग नौकरी दिलाने के लिये आरक्षण से भी परहेज नहीं, कितनों ने तो जाली जाति प्रमाणपत्र का भी प्रयोग किया। ऐसी अनैतिकता के सहारे अपनी आत्मा को दूषित करने से क्या हासिल होगा? क्यों भूल जाते है कि पूत सपूत तो क्यों धन संचय? और पूत कपूत तो क्यों धन संचय? हम अनैतिक कार्य करें और बेटे बेटियों से उम्मीद करे कि वे सब राजा हरीशचंद्र बन जाय ऐसा कदापि सम्भव नहीं होगा। एक और बात सोचने की है कि हम अपने पूर्वजो के लिए क्या कर रहे है, उन्हें कितना याद करते है, जब हमें फुरसत नहीं तो हमारी संतानों को फुरसत कैसे होगा? यदि समझ गए तो ठीक है।
मेरे कहने का अर्थ ये नहीं कि हमें माया मोह से मुक्त हो सन्यासी बन जाना चाहिए परन्तु इतना अवश्य है कि जीवन और मृत्यु को, मार्ग का समान्तर चलने वाला दोनों किनारा समझना चाहिए, जहा इन्ही किनारों पर सत्य और माया का निवास है, इन्ही दोनों के बीच हमारा मार्ग होगा तभी लक्ष्य स्पष्ट नजर आएगा। अन्यथा ना मंजिल होगी ना मोक्ष, सफ़र तो सब चलते है मगर डगर का ज्ञान किसी किसी को ही होता है, बाकि तो एक दूसरे को देखकर चलते है, यदि आप को डगर का ज्ञान होगा तो आप औरों की प्रेरणा बन सकते है, परन्तु मात्र ज्ञान से ही कोई किसी के लिए प्रेरणा का पात्र नहीं होता, उसके लिए प्रेम होना जरुरी है, जीवन में किसी का मजाक उड़ाना, किसी असहाय को दुःखी करना, यही हमें नेतृत्व नहीं करने देता, जब प्रेम का ज्ञान होगा तो भक्ति भी होगी और भगवान भी, फिर बगैर सन्यास हम होंगे सन्यासी और लोग अपने आप तारीफ़ करेंगे! हमें तारीफ़ के लिए अंतिम संस्कार का इंतजार नहीं करना होगा कुछ अभी मिलेंगी कुछ तो अस्मशान के लिए उधार छोड़नी होगी, बस इतनी सी जिन्दगी और समस्याएं अनेक है, परन्तु नफरत नहीं तो जीने के मार्ग और जीवन एक है।
जिन्दगी भर सोचता कि ऐसा मत करो वैसा मत करो यहाँ मत जाओ वहा मत जाओ वर्ना लोग क्या कहेगें?
ता उम्र गुजार दी हमने बस इज्जत बनाते बनाते,
लुट गए मर मिटे बस रस्म रिवाज को निभाते निभाते,
बड़ी देर कर दी ऐ मुसाफ़िर सफ़र में खुद धुनि जगाते जगाते,
जब अज्ञान छटा तो सांसे ही नहीं चलो कुछ तो बोला लुटाते लुटाते।
मगर तनिक भी एहसास नहीं था कि लोग जब बोलेंगे तो बस इतना ही बोलेंगे कि "राम नाम सत्य है, राम नाम सत्य है।" मैं भी क्या करता जब सुनने और समझने लायक ही नहीं रहा।
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