Friday, 6 May 2016

कैसे लालची अज्ञानियों ने समाज में ज़हर घोला है?

एक गांव में एक पंडित जी हर महीने पूजा पाठ कराने आते थे, गांव के लोग उन्हें बड़े ही आदर के साथ सम्मान देते थे और पंडित जी जो भी कथा बारता करते थे उसका अर्थ उन्ही गांव वालों की भाषा में बड़े प्यार से समझाते थे। उसी गांव के कालू जी कुछ दिनों के लिए बहार कमाने हेतु गए वहा उन्होंने रामचरित मानस की खूब बड़ाई लोगों द्वारा सुनी तो कालू जी के मन में इसकी जिज्ञासा बढ़ने लगी जब वे अपने गांव वापस आये तो,

एक दिन पंडित जी को निमंत्रण भेज कर बुलवाया और पंडित जी से रामचरित मानस समझाने की बात कही। अब सारे गांव वाले इकट्ठा हो गए मंच लगी पंडित जी ने कथा प्रारंभ से पहले पूछा भाई आप लोग कौन सा काण्ड सुनना चाहते है? लोग बोले पंडित जी हमें काण्ड आंड पता नहीं आप राम जी का विवाह काण्ड सुना दीजिये! अब पंडित जी केजरीवाल की तरह काफ़ी माहिर विद्वान थे। उन्होंने कथा प्रारंभ किया बोले श्री राम के विवाह में जनक जी एक शर्त रखी थी कि जो उस शर्त को पूरा करेगा मै उसी के साथ अपनी पुत्री सीता का विवाह करूँगा। अब यह शर्त सुनकर सभी देशों के नृप उस स्वम्बर में आये फिर आगे संत तुलसीदास जी कहते है कि सकल नृप मिलि एकही बारा। लगे उठावै टरे न टारा।।

अब भीड़ से आवाज आई वाह पंडित जी वाह क्या प्रसंग बोली है आपने, तब तक दूसरे ने बोला पंडित जी लगे हाथ इसका मतलब भी बोलते चलिये तो पंडित जी ने बताया कि वहा पर जुटे सारे राजा नृप सभी एक साथ मिलकर एक बारा (वड़ा) था उसे उठाने लगे लेकिन मज़ाल क्या वड़ा भी ऐसा वैसा नहीं था जो इन लोगों के बस की बात हो इतना जोर लगाया इतना कोशिश की लेकिन वड़ा टस से मस नहीं हुआ। अब भीड़ से एक ने पूछा पंडीजी जब वड़ा इतना बड़ा था तो ये बना कैसे इसे किस कड़ाही में पकाया गया?

पंडित जी ने बड़ी प्रसंसा की प्रस्न पूछने वाले की बोले देख़ो यही एक भक्त है जिसे खूब अच्छा ज्ञान है और कितना लगन पूर्वक आप सुन रहे है, आपको अवश्य ही इस कथा का लाभ होगा। रही बात वड़ा की तो तुलसीदास जी ने वर्णन किया है कि, जनम जनम मुनि जतन कराही। अंत राम कही आवत नाही।। जनम जनम से सारे ऋषि मुनि मिलकर लाख लाख जतन करके एक कड़ाही बनाया था और कड़ाही भी इतनी बड़ी की आखिर ने राम भी बोले यह कड़ाही हमसे भी नहीं आ रही है, तब लक्षमण जी ने चाप चढ़ाया और धरती को धमकाया कि हमारे बड़े भईया की इज्जत का सवाल है, कड़ाही से चिपको मत फिर क्या धरती ने भी मदद की और श्री राम ने कड़ाही उठाकर सीधा कर दिया। फिर एक बोला पंडीजी इसमे तेल कहा से आया और ये गर्म कैसे हुआ? पंडीजी बोले वाकहि में इस गांव के लोगों में भक्ति भाव और समझ अपार है भगवान भी अपलोगो को पूर्ण फल देगा। इतना कहकर पंडीजी ने कहा तुलसीदास जी कहते है कि वारिध तेल तप्त जनु वर्षा। एक दम गरमा गरम तेल की वर्षात हुई और वही तेल कड़ाही में भर लिया गया, फिर गरम करने की जरूरत ही नहीं उसी तेल में वड़ा पका लिया गया। अब वड़ा पकने के बाद जनक जी ने शर्त रखी कि जो भी व्यक्ति इस बड़ा को उठाकर तोड़ेगा उसी के साथ मैं अपनी पुत्री सीता का विवाह करूँगा।

भीड़ से पंडीजी के जयघोष खूब तेजी से होने लगे पंडीजी थोड़ी देर शांति के बाद जब जयघोष की आवाजें धीमी हुई तो बोले जब सारे नृप इस वड़ा को नहीं उठा पाये तो गुरु विश्वामित्र की आज्ञा से श्री राम ने इसे उठाकर तुरन्त तोड़ दिया। और खास बात यह जब श्री राम जी कड़ाही उठा सकते है तो इस वड़ा की क्या औकात? बस इतनी सी शर्त पूरा होते ही श्री राम का विवाह सीता माता के साथ हो गया।

आज भी ऐसे पंडितों अज्ञानियों ने देश में निजी स्वार्थ बस अलुल जलूल शिक्षा का प्रचार प्रसार कर रहे है, जिनके द्वारा उत्पन्न चेले आगे चलकर सेक्युलर नेता बनते है और जैसे गुरु लूट रहे है वैसे ही चेले देश को लूट रहे है। कुछ गुरु थोडा बहुत दिमाग का दुरप्रयोग भी कर समाज में विष घोल रहे है उसका वर्णन निम्नलिखित है।

सनातन संस्कृति के शत्रुओं का अधूरा ज्ञान है जो संतों और ब्रह्मणों पर आक्षेप लगाता है,सुनकर कष्ट होता है। 'रामचरित मानस' के सुन्दरकांड में वर्णन है-"ढोल गंवार शूद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।।" इस चौपाई पर लोग अपनी समझ बूझ और ज्ञान चरित्र विचार के आधार पर अर्थ बताते है। संत तुलसीदास के विषय में भी लोग बोलते है कि तुलसीदास जी की यह चौपाई अनुचित है। कोई स्त्री विरोधी बताकर तुलसीदास को अपशब्द बोलता है तो कोई शूद्र विरोधी बताकर अनर्गल प्रलाप करता है।

एक दिन मैने कहा, लाल शब्द के विषय में बोलें! तो भीड़ से आवाज आई खतरा, खून, रेड लाइट आदि आदि, थोड़ी देर बाद लगभग बीसों शब्द बता कर लोग चुप हो गए तो मैंने फिर पूछा और बताइए! तो धीरे धीरे एक ने बोला शुभ, दूसरे ने सावधान इसीतरह टमाटर देवीजी की चुनरी गुलाब का फूल आदि आदि। इस घटना से एक बात समझ में आई लोग सबसे पहले नकारात्मक बातों को बोलते है क्योंकि बचपन से ही ये मत करो ऐसा मत बोलो उससे खतरा हो सकता है ओ बुरा है। यहाँ तक जब कभी कोई ट्रेन बस आदि में सीट पर बैठने के लिए जब कोई जगह मागता है तो, तो हम मना कर देते है। परन्तु यदि वह बगल में बैठ जाता है तो थोड़ी देर बात यदि हम कुछ बैग से निकाल कर खाने लगते है तो उससे भी पूछते है। अब सोचने की बात है पहले तो जगह नहीं दे रहा था और थोड़ी देर बाद दोस्ती हो गई क्योंकि पहले हम सकारात्मक सोचने के आदती नहीं है।

बस यही कारण है कि अपने चरित्र के अनुसार लोग अर्थ का अनर्थ बता देते है।यदि संत तुलसीदास स्त्रियों से घृणा करते तो रामचरित मानस में उन्होंने स्त्री को देवी समान क्यों बताया? "एक नारिब्रतरत सब झारी। ते मन बचन क्रम पतिहितकारी॥“ अर्थात, पुरुषों के विशेषाधिकारों को न मानकर स्त्री-पुरुष को समान रूप से एक ही व्रत पालन करने का आदेश दिया गया है। तुलसीदास ने रामचरित मानस में सीताजी को परम् आदर्शवादी स्त्री यहां तक कि लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक हीं किया है। सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमानजी द्वारा माता कहना,कैकेई और मंथरा का भी अपनी गलती का अहसास होने पर पश्चाताप करने का वर्णन तुलसीदास ने किया है। अब तुलसीदास के शब्दों का अर्थ-'स्त्री को पीटना' कैसे हो सकता है?

इस प्रसंग का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि तुलसीदास शूद्रों के विषय में ऐसा लिख हीं नहीं सकते क्योंकि उनके आराध्य श्रीराम द्वारा शबरी,निषादराज,केवट आदि से मिलने के वर्णन इतने आदर्श रूप में किया हैं। संत तुलसीदास ने ' रामचरित मानस की रचना' "अवधि" में की है। इसलिए प्रचलित क्षेत्रीय शब्द अधिक आए हैं। "ताड़ना" शब्द को संस्कृत से जोड़कर नहीं देखा जा सकता। "ताड़ना" अवधि भाषा का एक शब्द है,जो मुख्यतः उत्तर प्रदेश और बिहार की क्षेत्रीयक्षेत्रीय भाषा है। ताड़ना का अर्थ होता है- 'पहचानना','परखना','रेकी करना' बहुत ही ध्यान पूर्वक समझने की कोशिश करना या विश्लेषण करना आदि। संत तुलसीदास कहते हैं कि-"हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तब उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी। इसलिए उसके स्वभाव को जानना आवश्यक है। इसी प्रकार गंवार का अर्थ अज्ञानी जनों से है,उनकी प्रकृति को समझे बिना उनके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता। इसी प्रकार पशु और नारी के विषय में भी वहीं अर्थ है कि जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं हो सकता। और जब तक इनसे भलीभाँति परिचित या इनका व्यवहार नहीं जान लेते तब तक इनसे सावधान भी रहिए। इसका वास्तविक भावार्थ है-ढोल, गंवार, शूद्र, पशु तथा नारी के व्यवहार को ठीक से समझना चाहिए और उनकी किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।


ढोल एक बाद्य यंत्र है जिस प्रकार इसका ज्ञान भलीभाँति हुए बगैर, अच्छे सुर नहीं आ सकते उसी प्रकार जो जीव आदर्शता नैतिकता मर्यादा सामाजिक चेतना कीर्ति हानि से अचेत हो, इसे बचाने या बनाने के प्रयासों से अछूता हो, ऐसी कुटिलता शुद्र गवार पशु और नारियों में अधिक मिलती है इसलिए ये सब विवेक पूर्वक समझने जानने के अधिकारी है अन्यथा इनसे धोखा मिल सकता है।

इस तरह समाज में अज्ञानता अशिक्षा का प्रचार प्रसार आजादी के बाद से ही हो रहा है जिसके परिणामस्वरुप देश में अनैतिकता अपराध घोटाले घूसखोरी भ्रस्टाचार को बढ़ावा मिल रहा है और जब गुरु ही लालची तो चेले भी लालची पैदा हो रहे जो समाज को बाटने और बिगाड़ने का काम कर रहे अतः मैं सभी बन्धुओ से निवेदन करूँगा का कि किसी भी संत या महापुरुष के विचार जाने बगैर अनाब सनाब का ज्ञान न बाटें जिससे समाज की श्रद्धा और नैतिकता बनी रहे।

   - जय श्री राम।

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