किसी का नक़ल कर सफ़ल नहीं होता कोई! श्री नरेंद्र मोदी जी का नक़ल कर या श्री मनमोहन जी का नक़ल कर कोई पी एम् नहीं बन सकता, न श्री चंद्रशेखर आजाद की नक़ल कर क्रांतिकारी और न गांधी जी का नक़ल कर कोई देश आजाद करा सकता है यदि अनशन करने से हुआ हो तो। परन्तु इन लोगों से प्रेरणा ली जा सकती है कि चाय बेचने वाला पी एम् बन सकता है। खाना पीना छोड़ अनशन करने से देश आज़ाद हो सकता है, आजाद की गतिविधियों से इतने बड़े देश का शासक डर सकता है।
भीड़ में चलने से सफ़र तो कट जाते है मगर मंजिल नहीं मिलती और भीड़ से जुदा होने से जिन्दगी नहीं मिलती अब बेचारा इंसान करे तो क्या करे। बड़ी अजीब सी जिन्दगी है साथ चले तो मंजिल छूटे, मंजिल मिले तो साथी। फिर तो बड़ी कठिन है डगर पनघट की। आखिर ऐसा क्यों उत्तर बड़ा सीधा सा है आओ बताते है!
एक समय की बात है एक छोटी सी बाजार के गांव में एक यादव जी रहते थे,वेचारे बड़े भोले भाले सन्त स्वभाव के थे मानो इस दुनिया की हवा ही नहीं लगी हो। एक दिन अपने दरवाजे पर बैठकर धूप ले रहे थे तभी बाजार के सेठ जी आ पहुँचे।यादवजी के पास एक गाय थी जिसे देखकर सेठ जी खरीदने की बात करने लगे काफी कुछ समझाने बुझाने के बाद गाय की कीमत 5 हजार सेठजी ने लगा दी अब यादवजी बेचने के लिए तैयार तो हो गए लेकिन बीबी का खौफ़ भी था, परन्तु शाहस जुटा यादव जी ने गाय 5 हजार में बेच ही दी।
अगले दिन यादवजी की बीबी मायके से वापस आ गई गाय दरवाजे पर न देख आते ही आग बबूला हो गयी, आव न देखी न ताव, बस यादव जी को भला बुरा बोलने लगी और बोली तुरन्त जाओ गाय वापस ले आओ। यादव जी बेचारे दबे मन सेठ जी के घर गए और सारी बातें बोले तो सेठ जी भी भले आदमी थे, गाय वापस करने के लिए तैयार हो गए, लेकिन बोले 6 हजार देने होंगे। अब मरता क्या न करता यादव जी 6 हजार दे कर गाय वापस ले आये।
अब थोड़ी देर बाद जब सेठ जी की बीबी घर से बाहर निकली तो गाय न देख सेठ जी से बोल बैठी, सेठ जी को समझाने लगी गाय बड़ी अच्छी थी, ऐसा करो जाओ अगर 7 हजार में भी दे तो वापस ले आओ। सेठ जी भी बात मान यादव जी के घर गए और यादव जी को 7 हजार देने की बात बोले तो यादव जी ने तुरंत हाँ कह दिया और 7 हजार लेकर गाय सेठ जी को बेच दी जैसे ही गाय का पगहा सेठ जी पकड़ दरवाजे से बाहर निकल ही रहे थे, कि यादव जी की बीबी फिर आ टपकी। अब सेठ जी जिद पर अड़ गए, बोले 8 हजार दो तब गाय वापस मिलेगी, यादव जी भी बेचारे 8 हजार देकर बीबी की गलियों से बचे और गाय वापस ले ही लिए।
अब सबसे बड़ा सवाल ये है कि यादव जी को घाटा हुआ या फायदा वह भी कितने का?? ऐसे ही सवालों में उलझ गई है हमारी जिन्दगी, आखिर क्यों? शायद जब भी हमें फुर्सत मिलता है तो हम टीवी मोबाइल या चलचित्र घरों का रुख करते है और यही हमारी दिनचर्या हमें दर्शक बना दिया है हाँ हाँ मूक दर्शक हम चुप चाप अपने इर्द गिर्द समस्याओं को देखते है और सोचते है ये हमारे ऊपर कभी नहीं आएगी परन्तु यही वह भी सोचता था जो आज झेल रहा है। खैर इसका समाधान क्या है आओ बताते है!
शाम का समय था मैं अपनी गाड़ी से जौनपुर से जमलापुर को लौट ही रहा था की मड़ियाहूं के थोड़े से आगे जाम लगा हुआ था लगभग पचासों गाड़िया खड़ी थी उनमें बैठे सौ दो सौ लोग भी थे लोग उतर उतर खैनी गुटका खा खा बहस कर रहे थे और प्रशासन को भी कोस रहे थे, मैं आगे बढकर देखा तो एक यूकेलिप्टस का पेड़ आंधी की वजह से गिर कर रास्ता जाम किये हुए था। देखते ही मैंने कहा यार ये तो मैं एक हाथ से खीच कर हटा सकता हूँ ऐसे ऐसे कितनों पेड़ो को मैंने हटाया है,अब लोग मेरी तरफ अजीब सी निगाहों से देखने लगे कुछ तो मुझे भूत समझने लगे कुछ बहुबाती बड़बडी बेवकूफ। मैंने पेड़ की एक टहनी पकड़ी और कहा यार थोड़ी गाड़ी पीछे हटवाओ इस पेड़ को खीचने का जगह तो दो! अब तो लोग और भी सक करने लगे और कुछ हँसने भी लगे। परन्तु कुछ भले लोग भी थे जिन्होंने गाड़िया पीछे करवाई। जगह मिलते ही मैंने लोगों को समझाया बस आप लोग एक एक टहनी पकड़े और रास्ता अपने आप बन जायेगा। यकीन मानिए दो मिनट भी नहीं लगा और रास्ता साफ हो गया अब तो भारत माता की जय के नारे लगाने का ही वक्त है।
अब तनिक सोचें शक्ति भी थी समस्या भी थी फिर लोग परेशान क्यों थे? क्योंकि नेतृत्व नहीं था जिसके बगैर सहयोगी सहयोग नहीं कर रहे थे। मैं ये नहीं कहता आप सहयोगी बने, आप तो नेतृत्व कर सकते है यदि नहीं तो सहयोगी बने! अब गाय वाले का उत्तर कमेंट कर दे!
जय श्री राम!
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