प्रत्येक व्यक्ति के मन में परमार्थ होता है और उसका प्रत्येक कार्य भी उसी भाव से किया जाता है चाहे वह शुद्र हो या बैश्य क्षत्रिय, ब्राह्मण परन्तु सेवा भाव तब समाप्त हो जाता है जब स्वार्थ परमार्थ पर प्रभावी हो जाता है और यह कब होता है इस बात का अंदाजा कोई भी स्वार्थी नहीं लगा पाता अन्यथा लालच कभी मानवता पर शासन नहीं करता। जब भी सेवा करने वाले को धन की प्राथमिकता होती है यह तभी होता है।
आपने पढ़ा होगा भगवान गौतम बुद्ध को जिन्होंने राज्य त्याग दिया सेवा करने के लिए, राजा भरथरी, राजा हरीशचंद्र आदि ने भी त्याग किया था। वे जानते थे यदि सेवा करना है तो पहले त्याग सीखो! जो त्यागी नहीं है उसकी नियत कभी भी किसी भी समय बदल सकती है, इसमे कोई आश्चर्य वाली बात नहीं। ये तो बात काफी पुरानी है मैं कलयुग की, अभी जल्द ही की बात बताता हूँ। आजादी के समय भी लोगों ने त्याग किया परन्तु त्याग के परिणाम स्वरुप जो फल मिला उसे, संभालने की क्षमता का अभाव दिखा, वर्ना सिर्फ नेहरू परिवार के अतिरिक्त सभी का सम्मान और सभी धर्मो सभी वर्गों को उचित न्याय मिला होता। राज्य सभा में मोदी जी का ये बोलना कि " हमारे कार्यो को माइक्रोस्कोप लेकर खोजा जाता है और खोजने में कोई बुराई नहीं आप खोजें परन्तु आप ने यदि अपने कार्यकाल में बाइनोकूलर भी लेकर समस्याओं को खोजा होता तो मुझे इतनी मेहनत नहीं करनी पड़ती।" मोदी जी के ये वाक्य इस बात को प्रमाणित करता है।
हाल ही में अन्ना साहेब का अनशन और केजरीवाल की फ़ुफ़कार! ऐसा लगता था जैसे वाकहि में हम आजादी की दूसरी लड़ाई लड़ रहे हो! लग रहा था बस पल दो पल की बात है, अब पूरे हिन्दुस्तान में ईमानदार ही बचेंगे! भ्रस्टाचार को तो शरण नहीं मिलेगा! परन्तु हुआ कुछ विपरीत ही, क्योंकि परमार्थ के सामने स्वार्थ पर्वत हो गया, और होता भी क्यों नहीं क्योंकि जब सत्ता या संपत्ति की चाहत, चरमसीमा पर होती है तो त्याग और पर पीड़ा नहीं दिखता। इसीलिए आज केजरीवाल को मोदी के सिवा सब कुछ प्रिय लगने लगा है। अब न कोई भ्रस्टाचारी रहा और न कोई अत्याचारी, सारा अवगुन केजरीवाल के अनुसार मोदीजी में या जो मोदीजी की बात करे उनमे आ गया।
रही बात आरएसएस या देश के साधू संतो की तो संतो या आरएसएस के पास न कोई भाई है न भतीजा न परिवारवाद है न जातिवाद यदि कुछ है तो वह सिर्फ त्याग। जो व्यकि बचपन गुजार दिया देश का सेवा करने के लिए अगर आज उसके हाथ में सत्ता दे दी भी जाय तो कौन सा गुनाह या गलती होगी, यदि उसे लालच होता धन का तो बचपन से धनप्राप्ति का मार्ग चुनता आरएसएस की सेवा में अपना जीवन नहीं विताता। कुछ ऐसी ही कहानी है गोरखपुर के योगी आदित्य नाथ महाराज की जिन्होंने ने विज्ञान से स्नातक तो किया चाहते तो अपना जीवन यापन सांसारिक मोह माया में कर सकते थे परन्तु सब कुछ ऐसा नहीं होता जैसा दुनिया चाहती है वर्ना कहा श्री राम की राज्याभिषेक की तैयारी हो रही थी और अगले ही दिन बनवास हो गया।
योगीजी को भी सन्यास से कम कुछ स्वीकार नहीं था। उनका भी मन परमार्थ कार्यो के प्रति समर्थित था इसीलिए उन्होंने मात्र बाइस वर्ष की अवस्था में ही पूर्ण रूप से सन्यासी हो गए और तेज तर्राक स्पष्टवादिता की वजह से लोकप्रिय भी। अन्य नेताओ की तरह किसी धर्म या वर्ग का झूठा तारीफ या विरोध कर कभी वोट नहीं मांगा। जो सच रहा सिर्फ वही कहा। क्या जरुरी है कि किसी वर्ग को खुस करने के लिए किसी वर्ग को दबाया जाय! योगी जी ने दबानेवालों का विरोध किया। आपको याद होगा जब रावण की नगरी में श्री हनुमान जी का प्रवेश हुआ था तो रावण के पूछने पर कि, तुमने हमारे पुत्र को मारा है! इसलिए तुम दोषी हो तो हनुमान जी ने कहा था।
फल खायों लागौ अति भूखा,
कपि स्वभाव ते तोड़ेऊ रुखा।
जो मोहि मारा सो तेहि मारा,
तापर बाँधेसि तनय तुम्हारा।
जाहिर सी बात है जब रावण ने सीता माता का अपहरण किया था तो हनुमान जी का नगरी में प्रवेश स्वाभाविक था और कोई दुश्मन के घर जायेगा और भूख लगेगा तो वही कुछ न कुछ खायेगा ही, जब जो गलती करेगा तो उसका परिणाम भी मिलेगा। और योगीजी ने सदा ऐसा ही किया।
मेरे कहने का मुख्य मतलब यह कि स्पष्टवादिता अवगुन नहीं गुण है जो आज के सेक्युलर नेताओं के मन से गायब है जिसकी वजह से वे छल कपट स्वार्थ लालच से पुरे भरे पड़े है। तिनका सा भी मानवता का स्थान सेक्युलरों के दिल में नहीं बचा है, इसीलिए अब समय आ गया है कि हम सत्ता सन्यासियों को सौपे! जिसके पास न परिवार है और न कोई लालच....!
सबतो ठीक! परन्तु इस भ्रस्टाचारी लुटेरे युग से मुक्ति के लिये ऐसा सोचना कुछ गलत नहीं कि एक सन्यासी देश को लूटेगा क्यों? ठगी से बचने का यही एक समाधान है कि आगामी सभी चुनावों में योगी आदित्य नाथ जैसे सन्यासियों को प्राथमिकता दी जाय!!
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