"धर्म प्रक्रिया है और ईश्वरीय तत्व की प्राप्ति उसका उद्देश्य, ऐसे में, महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए, धर्म की प्रक्रिया या उद्देश्य ?
परिवर्तन ही इस संसार का परम सत्य है, इसके अलावा सत्य के सभी प्रारूप, समय के सापेक्ष होते हैं। चूँकि समय के घर्षण से जीवन मूल्यों, और सिद्धांतों की ऊपरी सतह धूमिल हो जाती है, इसीलिए समय के साथ उनमें परिवर्तन भी आवश्यक हो जाता है। अतः यह संभव है की समय के संक्रमण से धर्म की समझ भी विकृत (दूषित) हो जाए।
विकृत धर्म की समझ से संभव है कि ईश्वर में भी विकार दिखे, इसलिए यह जानना आवश्यक है की, हो सकता है समय के संक्रमण और समझ की विकृति के कारण धर्म की परिभाषा सत्य न रहे पर हर परिस्थिति में सत्य ही धर्म होता है। ऐसे में, स्वयं की सत्यता का ज्ञान महत्वपूर्ण हो जाता है।
यही कारण है की समय समय पर जीवन ने नए धर्म को जन्म दिया परन्तु ईश्वर हमेशा एक ही रहा है।
जीवन के लिए धर्म के अनुसार ईश्वर को जानना एक विकल्प है, परन्तु अगर जीवन ईश्वरीय तत्व को प्राप्त कर लें तो, उसे स्वभाविकतः धर्म का वास्तविक ज्ञान भी हो जाता है , ऐसे में, सवाल यह उठता है की बिना धर्म को जाने ईश्वरीय तत्व की प्राप्ति कैसे संभव है?
इस जटिल प्रक्रिया को सरल बनाने के लिए समझ से अधिक संवेदनाएं महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि समझ ज्ञान पर आधारित होता है, जबकि संवेदनाएं जीवन के लिए सहज व स्वाभाविक। आखिर दिव्यता के अनुसरण के लिए ज्ञान के तर्क निर्णायक होते हैं, परन्तु दिव्यता की अनुभूति के लिए, अंतरात्मा की स्वीकृति और उसके प्रति समर्पण। जिसे साधारणतः भक्ति कहा जाता है।
क्यों न आज धर्म के अनुसार ईश्वर की व्याख्या करने के बजाये उस ईश्वरीय तत्व की अनुभूति कर धर्म को पुनः पारिभाषित किया जाए। संभव है, किया जा सकता है और आवश्यक भी क्योंकि जब तक हम ईश्वरी तत्व को अपनी समझ से जड़ बना देंगे उन्हें अपने कर्मों द्वारा यथार्थ में जीवंत रूप प्रदान कर पाना कठिन होगा !
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