Saturday, 30 April 2016

रौनकें कहां दिखती हैं अब, पहले जैसी बाज़ारों में, त्यौहारों का पता बताती, कुछ कतरन अखबारों में।

रौनकें कहां दिखती हैं अब, पहले जैसी बाज़ारों में,
त्यौहारों का पता बताती, कुछ कतरन अखबारों में।
आटा, चावल, तरकारी, हर लम्हा नया शिगुफ़ा है,
सब लाश के जैसे खड़े हुए हैं, रोज़ नई कतारों में।
माँ के हाथ का एक निवाला मिलता कहाँ है शहरों में,
घर की याद है अक्सर आती, गर्मी हो या जाड़ो में।
बचपन के किस्से अब भी छिपे हुए हैं, दिलो-ज़हन मे
जब परियां खोजा करते थे, सूरज में चांद सितारो में

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