Wednesday, 29 June 2016

छछूंदर भी सर पर लगाये चमेली, कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली, मानवता के पतन की कहानी।

छछूंदर भी सर पर लगाये चमेली, कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली, मानवता के पतन की कहानी।
राजा भोज का दरबार लगा हुआ था लोग ठहाके लगा रहे थे क्योंकि दरबार में किसी को किसी भी प्रकार की परेशानी नहीं थी प्रजा भी मस्त और प्रशासन भी मस्त परंतु ये दिन भी कुछ खास था कि दरबार में दो व्यक्ति लड़ते झगड़ते प्रवेश किये एक ने जोर से गुहार लगाई राजन न्याय करें! तभी दूसरे ने भी वैसी ही गुहार लगाई। राजा ने दोनों को शांत करवाया और थोड़ी देर आराम करने को कहा, जब वे दोनों थोडा शांत चित्त हुए तो भोज ने एक से पूछा बताओ क्या बात है? वादी बोला राजन मैंने अपनी जमीन दो दिन पहले इन्हें बेच दी थी, आज ये मेरे पास मुद्राओं से भरा हुआ एक घड़ा लेकर आये और बोलरहे है कि ये घड़ा उसी जमीन से निकला है जो तुमने बेचीं है, ये घड़ा तुम्हारा है तुम इसे रखो। राजन जब दो दिन पहले जमीन मैंने बेच दी तो फिर घड़ा मेरा कैसे हुआ? आप इन्हें आदेश दे कि घड़ा ये अपने पास रखें। खरीददार भी बोला राजन मैंने इनसे सिर्फ जमीन खरीदी थी, जब जमीन की खुदाई किया तो उसमें से ये मुद्राओं से भरा घड़ा मिला चूँकि मैंने घड़े की कीमत दी नहीं है तो घड़ा कैसे रखूँ??
राजा ने दोनों से दो दिन का समय माँगा क्योंकि उन दिनों भारतीय संविधान जैसा कुछ भी नहीं था कि धारा इतना इतना के तहत अदालत इस निष्कर्ष पर पहुँची कि निर्भया काण्ड के दोषी नाबालिक को संविधान की कमियो के आधार पर रिहा किया जाता है। उन दिनों तर्क वितर्क के आधार पर उचित न्याय किया जाता था, इसलिए राजा ने अपने मंत्रियों से तर्क वितर्क किया कुछ ने कहा घड़ा क्रेता को, कुछ ने विक्रेता को, कुछ ने कहा संपत्ति राजा की, तो कुछ ने कहा मुद्रा रखने वाले का पता लगा उसे देनी चाहिए। और इतना भी मुश्किल नहीं था कि घड़ा रखने वाले का पता न लगाया जा सके। परंतु उचित न्याय न समझ राजा ने फैसला किया कि इस मुकदमे का फैसला लगभग 1000 साल बाद ईमानदार समझकर जनता जिसे दिल्ली की सत्ता सौपेगी वही करेगा।

राजा भोज परमार वंश के नौंवे राजा थे, धर्म, खगोल विद्या, कला, कोषरचना, भवननिर्माण, काव्य, औषधशास्त्र आदि विभिन्न विषयों के बहुत बड़े ज्ञाता थे जिन्होंने इन विषयों पर पुस्तकें भी लिखी हैं जो आज भी वर्तमान हैं। उन्होने सन् 1000 ई. से 1055 ई. तक राज्य किया। इनकी विद्वता के कारण जनमानस में एक कहावत प्रचलित है, "कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तैली।" सरस्वतीकंठाभरण, शृंगारमंजरी, चंपूरामायण, चारुचर्या, तत्वप्रकाश, व्यवहारसमुच्चय आदि अनेक ग्रंथ इनके लिखे हुए आज भी मौजूद हैं। इनकी सभा सदा बड़े बड़े पंडितों से सुशोभित रहती थी। इनकी पत्नी का नाम लीलावती था जो बहुत बड़ी विदुषी थी।

जब भोज जीवित थे तो कहा जाता था-

अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती।
पण्डिता मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवि स्थिते॥
(आज जब भोजराज धरती पर स्थित हैं तो धारा नगरी अच्छे आधार वाली है, सरस्वती को सदा आलम्ब मिला हुआ है,  सभी पंडित आदृत हैं।)

जब उनका देहान्त हुआ तो कहा गया -

अद्य धारा निराधारा निरालंबा सरस्वती।
पण्डिताः खण्डिताः: सर्वे भोजराजे दिवं गते ॥
(आज भोजराज के दिवंगत हो जाने से धारा नगरी निराधार हो गयी है ; सरस्वती बिना आलम्ब की हो गयी हैं और सभी पंडित खंडित हैं।)

ऐसे महान युग का अंत हुआ जहाँ प्रजा भी किसी राजा से कम ईमानदार सत्यनिष्ठ और चरित्रवान नहीं होती थी। खैर एक हजार वर्ष बाद जनता भ्रस्टाचार, कुशासन, अत्याचार, से त्रस्त होकर नए युग नई राजनीति के लिए दिल्ली में अरविंद केजरीवाल को सत्ता सौपकर प्रयोग किया, जिनकी अदालत में यह मुकदमा फिर से पेश हुआ मगर अब क्रेता विक्रेता नहीं रहे उनके वंशज थे और राजा भोज की जगह गंगू तेली अरविंद केजरीवाल। केजरीवाल ने पूछा बताओ भाई क्या बात है तो विक्रेता के वंशज ने जमीन विक्री की बात बोलते हुए कहा हज़ूर मेरे पूर्वजो ने जमीन बेचीं थी घड़ा नहीं इसलिए घड़ा मुझे मिलना चाहिए। ठीक उसी तरह क्रेता के वंशज ने कहा हुजूर जमीन जब इनके पूर्वजो ने बेचीं तब उस जमीन में घड़ा था या नहीं था यह किसी को नहीं पता मगर जमीन खरीदने के बाद हमारे पूर्वजो के भाग्य से यह घड़ा मिला है इसलिए इस घड़े पर मेरा अधिकार है। केजरीवाल ने सोचा ये तो हमें बेवकूफ समझ रहे है, घड़ा अपने पास रखते हुए, फिर तो क्या आव न देखा न ताव लात मार दी प्रशांत भूषण और योगेन्द्र यादव जैसा दोनों को, अब वेचारे कुछ दिन हल्ला गुल्ला किये फिर तो शांत बैठना ही था।

अब सोचने की बात यह है कि देश वही हिन्दू वही मगर इन हजार सालों में ऐसा क्या हुआ? मात्र हमने विदेशी शासकों के साथ कुछ वर्ष क्या गुजारे कि राजा तो राजा प्रजा भी उलट गई, देने की बात लेने पर आ गई, सबके सिद्धांत बदल गए सबके चरित्र बदल गए। विदेशी शासकों ने सिर्फ इस देश से धन ही नहीं लूटा। यदि धन ही लूटा होता तो बड़ी आसानी से हम इन सत्तर सालों में पुनः धनवान हो जाते, मगर उन्होंने जो चरित्र लूटा वो इतनी आसानी से पूरा होता नजर नहीं आ रहा है। इसके लिए हमें अपनी शिक्षा प्रणाली में सुधार करना होगा, ताकि व्यक्ति सिद्धांतवान हो, सत्यनिष्ठावान हो हमें व्यक्तित्व निर्माण करना होगा तब यह देश पुनः सोने की चिड़िया होगा। अन्यथा ऐसे ही शासक मिलेंगे और ऐसी ही प्रजा होगी जो आरोपी तो आरोपी दोषी को भी सत्ता सौप देगी। यह कहानी पूरी तरह काल्पनिक है सिर्फ कुछ इतिहास और उन युगों की सच्चाई बताने के लिए मैंने राजा भोज और केजरीवाल का नाम लिया। ताकि हम सभी अपने उज्जवल भविष्य का निर्माण कर सके।

धर्मनिरपेक्षता और हिंदुत्व, बहुत हुआ रोजा इफ्तियार, अबकी बार सीमा पर वॉर।

हम आज के इस दौर में कितने चालक है, हमारी शिक्षा, विचार क्रिया प्रतिक्रिया सभी में बस एक ही झलक है पूँजी। हमने अब ये मान लिया है कि इस दुनिया में यदि खुशहाल रहना है तो अपने पास गाड़ी बँगला नौकर चमचा होना जरुरी है और ये सब सम्भव भी मात्र पूँजी से ही है तो जाहिर है कि हमारा ध्यान भी पूँजीवाद पर ही केंद्रित होगा और होना भी चाहिए क्योंकि जब समझ सम्मान पाने तक ही सिमित है तो पूँजीवाद में बुराई क्या है मगर एक बात याद रखनी होगी कि आप और आपकी पूंजी का रखवाला कौन होगा? वो जो चमचों की तरह आपके आगे पीछे चलते है या वो जो मानवता का चेहरा या विकास आप विश्व में कर रहे है।

हमारी इन्ही समझों ने हमें धर्म से विमुक्त कर रखा है, मान सम्मान तो बगैर पूंजी भी मिलता है मगर भौतिक सुखों का अभाव शायद हमें ऐसी जिंदगी जीने को प्रेरित नहीं करती, आज मनुष्य के लिए धर्म मात्र लोकाचार बनकर रह गया है, जिसका उपयोग मात्र शादी व्याह या मृत्यु के बाद अंतिम संस्कार के समय लगता है। इसीलिए तो हम दैनिक जीवन में इसपर ध्यान नहीं देते वर्ना आज बाजार में, राम बूट हाउस, लक्षमण लेदर स्टोर्स, माँ वैष्णो लस्सी भंडार, शंकर छाप तंबाकू,  बजरंग पान भंडार, गणेश छाप बीडी, लक्ष्मी छाप पटाखे, कृष्णा  बार  ऐंड  रेस्टारेंट, जय माँ अम्बे होटल आदि  हर जगह पर दिखाई देते है। परन्तु कभी आप ने सोचा कि सड़को पर पंचर, बीड़ी, गाड़ी रिपेयरिंग, नाइ या छोटी मोटी दुकान चलानेवाला क्यों अल्लाह छाप गुटका, खुदा छाप बीडी, ईसा मसीह  छाप तंबाकू की दुकान नहीं लगाता???

शायद इतना सोचने की फुरसत नहीं या हमें हिन्दू धर्म बकवास लगता है, बचपन में मुझे भी ऐसा ही लगता था क्योंकि हमारे संस्कार ही ऐसे है हमें बचपन में दयावान, निष्ठावान, अहिंसक, परोपकार की शिक्षा जो मिली है और इसमे बुराई भी कुछ नहीं, मगर जरा सोचें कि बार्डर पर दुश्मन गोलियां चला रहा हो और हम राम राम या ख़ुदा ख़ुदा का जप करें तो वो हमें माफ़ कर देगा हमारी धरती पर कब्ज़ा नहीं करेगा। आप सोच रहे होंगे कि क्या बकवास कर रहे हो ये कोई बार्डर है? तो पढ़े!

वाशिंगटन में 24 चर्च हैं, लन्दन में 71 चर्च, इटली के मिलान शहर में 68 चर्च हैं। जबकि अकेले दिल्ली में 271 चर्च हैं, और समूचे भारत में 3 लाख मस्जिदें हैं इतने धार्मिक स्थल किसी भी देश में नहीं है। आये दिन इन्ही स्थलों को लेकर दंगे फ़साद मार पीट होती रहती है। आप सोचोगे कि इसमें हिंदुओ का भी तो कुछ गलती होगा, तो अवश्य ही आप सच सोच रहे है, वह यही गलती है जो आपको हिन्दू मात्र की ही गलती दिखरही है। यदि कुछ सिखना है तो ईसाईयों  से हम हिन्दू यह सीखे की अपने धर्म का सम्मान कैसे किया जाता है।

इससे भी बड़ा मजाक ये है कि हिन्दू सांप्रदायिक है, क्या आपने ISIS का विरोध करते किसी मुस्लिम को देखा है? फिर RSS का विरोध क्यों होता है?? किसी मुस्लिम को होली दीवाली की पार्टी देते देखा है? नहीं देखा होगा !!  मगर हिन्दुओ को इफ्तार पार्टी देते मैंने देखा है। मैंने कश्मीर में भारत के झंडे जलते देखे है। परन्तु कभी पाकिस्तान का झंडा जलाते हुए मुसलमान नहीं देखा है।  मैंने हिन्दुओ को टोपी पहने मजारो पर जाते देखा है। लेकिन किसी मुस्लिम को टिका लगाते मंदिर जाते नहीं देखा है। मैंने मिडिया को विदेशो के गुण गाते देखा है। मगर भारत के संस्कार के प्रचार करते नहीं देखा है। आखिर इनसब का जिम्मेदार कौन मैं या आप जो सेक्युलिरिज्म की बातें करते हो क्यों नहीं सिखाते यही पाठ उन्हें जो इस कदर अपमान करते है हिन्दू देवी देवताओं का उस समय कहाँ चली जाती है तुम्हारी धर्मनिरपेक्षता??

Monday, 27 June 2016

खुद को कर बुलंद इतना कि हर तहरीर से ईश्वर पूछे कि बन्दे बता तेरी रजा क्या है।

सत्य क्या है? प्रश्न जितना आसान दिखता है उत्तर उतना आसान नहीं। बस इतना ही समझ लें कि जो सनातन है, जो प्राकृतिक है, जिसके साथ किसी भी तरह से छेड़छाड़ नहीं किया गया है, वही सत्य है। सत्य मार्ग पर चलने का मतलब प्रकृति के बनाये किसी भी वस्तु या जीव को आहत किये बगैर अपने स्वार्थ की सिद्धि ही सत्य मार्ग है।

आदर्श व्यवस्था निर्भीक संविधान का गठन भी इसी सत्य को ध्यान में रखकर किया गया है। जिसका तात्पर्य मानवता का उत्थान है, मगर इतना भी आसान नहीं मानवता स्थापित करना, उसके लिए सर्व प्रथम सभी लोग अपने गांव मोहल्ले, फिर  क्रमशः तहसील, जिला, मंडल, प्रदेश, देश, जाति, धर्म और मानवता स्तर पर संगठित हो! तभी मानवीय प्रगति के बारे में कुछ सम्भव है। मगर दिल में ख्याल आ रहा होगा कि जब मानवता की बात है तो इन छोटे छोटे संगठनो को बनाकर क्या हम मानवता को विभाजित तो नहीं कर रहे है। ख्याल उठना भी जायज है। लेकिन हमें सोचना होगा कि यदि मंजिल की दूरी अधिक है तो कई रास्तों को बदल कर पंहुचा जाता है। अधिक दूरी तक सिर्फ एक ही रास्ता नहीं जाता, उसी प्रकार मानवता का कल्याण कोई छोटी मंजिल नहीं जिसे बस सोचा और हो गया, इसे स्थापित करने में कितने पैगम्बर,बौद्ध, जैन, शंकराचार्य, यीशु मसीह आदि गुजर गए मगर गलतफहमी ऐसी की बातें जस की तस।

आइये सर्व प्रथम आदर्श व्यवस्था निर्भीक संविधान से शुभारम्भ करें! और एक दूसरे को जोड़ने का प्रयास करें! क्योंकि "विनय न मानत जलधि जड़ गए तीन दिन बीत। बोले राम सकोपि तब भय बिनु होइ न प्रीत।।" कहने का अर्थ कि यदि आप स्वतः सुदृढ़ नहीं होंगे तो दूसरे आपके साथ नहीं जुड़ेंगे इसलिए सर्व प्रथम स्वयं सुदृढ़ हो!!

Sunday, 26 June 2016

नशा शराब में होती तो नाचती बोतल, नशा यदि लालच बन जाए तो जिंदगी होटल।

नशा शराब में होती तो नाचती बोतल, नशा यदि लालच बन जाए तो जिंदगी होटल।
          एक नाइ अपने परिवार सहित खुशहाल जिंदगी जी रहा था, उसके परिवार में दो बच्चे भी थे, नाइ सदैव बड़े बूढ़ो को भगवान की तरह सम्मान देता था। न किसी से तकरार न किसी से रार सबके साथ हँसी ख़ुशी बातें करना, उसकी जिंदगी की खासियत थी। दरवाजे पर आये अतिथि को कभी एहसास ही नहीं होने देता था कि अतिथि अपने घर से दूर है।

नाइ अपनी जीविका चलाने के लिए रोज राजा की हजामत करने जाता था वहा से उसे रोज 100 मुद्राएं मिलती थी उसी से वह दान पूण्य घर गृहस्थी नात रिस्तेदार पास पड़ोस बीबी बच्चों सब को खुश रखता था और स्वगं भी खुश रहता था। नाइ के अंदर तनिक भी लालच नाम की चीज नहीं थी जब कोई उसे कुछ देने की चेष्टा भी करता तो हँस कर बोलता था बाबू सब कुछ आपका ही तो है। आप मेरी ये अमानत अपने पास रखिये समय आने पर मैं ले जाऊँगा। गांव के लोग एक आवाज लगाये नहीं कि नाइ सेवा के लिए हाजिर रहता था, गांव में सबकी हजामत बिना कुछ लिए करता रहता था, फिर भी खुशहाल इतना मानो साक्षात लक्षमी का निवास हो नाइ के घर में। नाइ की ईमानदारी, सेवाधर्म, माया मोह मुक्त, खुशहाली, बड़प्पन आदि की चर्चाए दूर दूर तक होने लगी।

एक दिन नाइ के घर एक ब्राह्मण आया ब्राह्मण ने भी वही देखा जो कभी कही सुना था, तो ब्राह्मण ने नाइ से कहा भाई मेरे पास कोई संतान नहीं है और ये मेरे पास तीन मुद्राओं से भरे घड़े है आप इसे लेलो, क्योंकि अब हमारी उम्र मात्र दो दिन बची है एक दिन में मैं काशी पहुँच जाऊँगा दूसरे दिन मेरी मौत हो जायेगी वहा कोई न कोई दाह संस्कार कर ही देगा, नाइ ने कहा महाराज दाह संस्कार कोई नहीं मैं आपके साथ चलुंगा और करूँगा आपने मुझे भाई कहा तो भाई को अपना फर्ज निभाने दीजिए! मगर हमारी आपसे एक विनती है कि ये मुद्राए काशी लिये चलते है वही जरुरत मंदो में बाट देंगे। ब्राह्मण ने कहा हमारी तो उम्र हो चुकी है और ये मुद्राए हमने आपको इसीलिए दी कि इससमय इसकी आपको जरूरत है, क्योंकि हो सकता है कल राजा अपनी हजामत के लिए किसी और नाइ को रख ले, फिर तो आपको ये मुद्राए काम आएगी। नाइ ने कहा महाराज होने को तो बहुत कुछ हो सकता है मगर अभी मुझे इसकी जरूरत नहीं है, आप मुझसे बड़े और पूज्य है इसलिए आपकी दी हुई मुद्राओ को मैं स्वीकार करता हूँ और आपके ही हित में खर्च करना चाहता हूँ ताकि अगले जन्म में ये आपको वापस मिलें। ब्राह्मण ने कहा भाई ये तो हमें अगले जनम में तो मिलेंगी ही क्योंकि मैंने इसे जो आपको देदी है। यदि आप यह सोचकर दान देना चाहते हो कि इससे मेंरा भला होगा तो वह हो चुका क्योंकि आपने इसे स्वीकार लिया है, अब आप अपने लिए इसे खर्च करें भविष्य में ये आप को काम आएंगी। नाइ मान गया और ब्राह्मण देवता अपनी योजनानुसार चल बसे।

जब नाइ ब्राह्मण देवता का दाह संस्कार करने गया था उसी बीच नाइ के दो भाई शिवपाल और रामगोपाल घर पर आ गए, उनलोगों ने अपने भाई के बारे में भाभी से पूछा तो भाभी ने सबकुछ सच सच बता दिया, और यह भी बता दिया कि आपके भाई साहेब आते ही ये सारी मुद्राओं से हवन यज्ञ दान पूण्य और ब्राह्मणों को भोजन आदि कराएंगे जब तक ये मुद्राएं ख़त्म नहीं हो जाती। इतना सुनते ही दोनों भाइयों के तो होस ही उड़ गए, जैसे समुद्र में रहकर प्यास गजब की लगी हो और पानी पी नहीं सकते। अब शिवपाल तो पक्का बुड़बक था मगर शातिर ऐसा जैसे कालनेमी श्री हनुमान को रोकने की योजना बना रहा हो, मगर रामगोपाल ने बुद्धि लगाई और भाभी को बच्चों का भविष्य दिखा डेढ़ घड़ा अपना हक़ अलग कराने की युक्ति लगाई। अब बच्चों सहित भाभी और दोनों भाई नाइ का इंतजार कर ही रहे थे कि नाइ महोदय आ टपके। आते ही बीबी भुन भुन करने लगी, जब देखो दिन रात दुसरो की सेवा में लगे रहते है, जैसे इनके पास बीबी बच्चे नहीं है, कल कुं अक्लेशवा बड़ा होगा उसके बारे में कुछ सोचा समझा है आप को तो राजा साहेब के यहाँ हजामत करने की नौकरी मिल गई है, कल राजा साहेब भी नहीं रहे तब क्या होगा? चल चल ज्यादा दिमाग मत लगा भगवान है वही सबका भला करेंगे! बीबी तो आग बबूला बोली आप अपना भला भगवान से करवाओ मुझे नहीं करवाना ये भला वला, ऐसा करो आप अपने हिस्से का डेढ़ घड़ा ले जाओ चाहे ब्राह्मण खिलाओ चाहे कुत्ता मगर मेरे हिस्से के घड़े को हाथ नहीं लगाए वर्ना मैं अपने बच्चों सहित अलग हो जाउंगी। फिर भी नाइ नहीं माना बोला तुझे अलग होना है अलग हो जा घड़ा लेना है घड़ा लेजा मेरे हिस्से जो भी आएगा मैं उसे ही दान करूँगा। अब शिवपाल ने बुद्धि लगाई, बोले भाभी डेढ़ घड़ा आप लेलो और डेढ़ घड़े के साथ हम पुरे परिवार सहित भइया का साथ देंगे परोपकार के कार्यो में। नाइ की हालात और लाचारी देख नाइ के चाहनेवालों ने भाभी की बड़ी बेइज्जती की मगर भाभी को मोह जो छाप लिया था और भाभीजी ने अलग होने का निर्णय ले ही लिया।

अब सभी लोगों के सामने एक एक घड़ा बाट दिया गया बाकि बचे तीसरे घड़े को बाटने के लिए एक और घड़ा मंगाकर उसे आधे आधे कर बाटा गया। डेढ़ घड़ा मिलते ही नाइ को उन तीन घड़ो की याद आने लगी जो ब्राह्मण ने दिया था, उसे यह बात सताने लगी कि उसके पास तीन घड़े थे अब डेढ़ ही बचे, फिर तो क्या नाइ दिन रात मेहनत कर उसे तीन बनाने में लग गया। कठिन मेहनत की वजह से नाइ का स्वभाव भी चिडचिढ़ा होने लगा, उसे अपने परिवार के सिवा दुसरो पर विश्वास भी नहीं रहा वह दिनप्रति दिन डिप्रेशन में हो गया। अब स्वभाव बदलने की वजह से राजा के साथ भी व्यवहार उचित नहीं करता था कभी हजामत करते समय ऐसी बहकी बहकी बातें करता था कि राजा को भी क्रोध आ जाय, काफी कुछ राजा ने समझाया मगर नाइ की लालच बढ़ती ही जा रही थी, और घड़ा था कि डेढ़ से दो होने का नाम ही नहीं ले रहा था। एक दिन नाइ की बीबी राजा के यहाँ गई और हजामत के लिये खुद नौकरी मांगी। राजा भी नाइ से परेशान था सोचा चलो इसे भी रख लेते है। अगले दिन नाइ ने देखा कि उसकी बीबी भी राजा की सेवा में लगी हुई है तो नाइ को गुस्सा आया और वह नौकरी छोड़छाड़ चल दिया।

बीबी भी दिनरात मेहनत कर घड़े को भरने में लगा रही थी जिसकी वजह से उसके अंदर लालच का रावण बढ़ता जा रहा था मगर न नाइ का घड़ा दो हुआ और न बीबी का, दोनों की खुशहाल जिंदगी में लालच ने ऐसा घर बनाया कि बच्चे आवारा हो गए उसके भाई बंधू शराबी कबाबी अय्यास। आये दिन रोज गुंडा गर्दी करते लूट घोटाला चोरी ठगी सारे हथकंडे अपना लिए बीबी और नाइ सहित उसके सारे बाल बच्चे और नात रिश्तेदार भाई बंधू जाति बिरादरी के लोग मगर किसी का भी घड़ा डेढ़ से दो नहीं हुआ।

एक दिन नाइ की बीबी से राजा ने पूछा कि बात क्या है जो तुम लोग इतना परेशान हो। नाइन पहले तो हिल्ला हवाली कर रही थी मगर राजा के बहला फुसला कर पूछने पर राजा को घड़े वाली बात बता ही दी फिर तो क्या राजा को सब समझ में आ गया क्योंकि राजा एक संत तपस्वी व्यक्ति था। फिर तो राजा ने नाइ को भी बुलवाया और दोनों को समझाया कि ये डेढ़ का मतलब अधूरी जिंदगी, अकेले तुम हँस तो सकते हो मगर जश्न नहीं मना सकते, जिंदगी जी तो सकते हो मगर महफिल नहीं सजा सकते। लालच माया छोड़ो दोनों फिर से एक हो जाओ और ख़ुशी ख़ुशी अपनी जिंदगी बिताओ। घड़े डेढ़ है उन्हें तीन बनाओ और जिंदगी में फिर से वापस आओ अन्यथा ये लालच जो है खुद तो डूबेगी ही साथ ही साथ अपने कुल खानदान भाई बिरादर नात रिश्तेदार सबको ले डूबेगी। मगर राजा की बात दोनों को तभी तक याद रही जब तक राजा बोल रहा था। आज भी दोनों नौकरी कर रहे है बच्चे दाइयों के हाथ पल बढ़ रहे है, नौकरों ने खाना बनाया तो खाया वर्ना होटलों का रुख कर रहे है मगर घड़ा है कि डेढ़ से दो होता नजर नहीं आता इन्हें कौन समझाये कि भाई लालच छोड़ो घड़ा दो नहीं तीन हो जायेगा अपने आप तीन का मतलब मियां बीबी और बच्चे।

हालात कुछ ऐसे ही है यूपी में माया और मुलायम के साथ ही साथ उनके चाहने वालों के। ये दो ही पार्टियां ऐसी है जो यूपी वालों के घड़े डेढ़ से तीन नहीं होने दे रही है समय रहते जाग जाओ वर्ना समय जब सुलायेगा तो जागने का अवसर फिर नहीं आएगा।

Wednesday, 22 June 2016

कर्म पर मनुष्य का अधिकार है और फल परिस्थितियों पर आधारित है इसका मतलब परिस्थियां ही भाग्य है?

भरोसा ऊपरवाले पर,तो जो लिखा है तक़दीर मैं वही पाओगे।
मगर, भरोसा ख़ुद पर है तो वही मिलेगा जो आप चाहोगे !!

पानी को चाहे कितना भी उबालो मगर समय आने पर वह ठंडा ही हो जाता है, वैसे ही किसी भी मनुष्य पर उपदेश का प्रभाव होता है उपदेसक के हटते ही बात जस की तस।
मगर दुःखी ना हो! कर्म पर मनुष्य का अधिकार है और फल परिस्थितियों पर आधारित है, इसका मतलब परिस्थियां ही भाग्य है। नहीं माना कि परिस्थितियों की वजह से मनुष्य को कर्म के अनुसार, जो वह चाहता है वह नहीं मिलता, मगर ये भी तो हो सकता है कि मनुष्य जितना करता है, उससे अधिक फल की कामना करता हो, और करे भी क्यों नहीं, जब वह देखता है कि, कोई वही कर्म करके जो फल प्राप्त कर लेता है तो दूसरे को क्यों नहीं मिलता? चाहत गलत आपके अनुसार नहीं, मगर प्रकृति के अनुसार है।

सबसे पहले विचार करने योग्य बात है कि परिस्थितियां है क्या? माना लोगों को दिल्ली जाना है,कोई गुरुग्राम में है, कोई गाज़ियाब, तो कोई मुम्बई आदि। किसी के पास फ्लाइट का शाधन, किसी के पास कार का तो कोई पैदल, अब समझने की बात ये है कि कौन कहाँ है, उसके पास शाधन क्या है, वह चलता कब है,और आगे चलकर कैसे मार्ग मिलते है, कैसा ट्रैफिक होगा और संशाधन अंत तक साथ देगे या नहीं आदि आदि। बस इसी तरह परिस्थितियों का समझा जा सकता है, मगर इनपर विजय कैसे पाया जाय, इसके लिए कुछ निम्न बातों को विचार करना होगा।

सबसे पहले अपने संशाधन का सामर्थ्य समझे! उस संशाधन से कितने समय में पहुँच सकते है, कब पहुचना है, उसके अनुसार चलने का समय तय करें! मगर हो सकता है रास्ते में आपका संशाधन ख़राब हो जाय, फिर तो महत्वपूर्ण ये ये है कि आपको पहुचना कितना मूल्यवान है, उस मूल्य के आधार पर पहले से ही मान कर चलें कि संशाधन ख़राब होने पर दूसरा विकल्प उपलब्ध हो, जिससे आपका समय न बर्बाद हो, और पहुचना जितना महत्वपूर्ण हो उतना विकल्प लेकर चलें। सभी आने वाली बाधाओं पर गंभीरता से विचार करें और सभी बाधाओं का विकल्प चुनें! फिर भी परिणाम पर आपका अधिकार नहीं है।  कुछ हद तक आप परिणाम के नजदीक हो सकते है, मगर अधिकार कर पाना इतना कठिन है जितना मनुष्य के पास विकल्प नहीं है।

जब विकल्प का अभाव होता है तभी हमें भाग्य पर विचार करना होता है, अन्यथा परिणाम की लागत इतनी अधिक हो जायेगी कि परिणाम महत्वहीन हो जायेगा। फिर दिल में ख्याल उठना ही चाहिए कि फल मनुष्य के अधिकार की बात नहीं, मगर एक बात है कुछ लोग बिना कर्म के भी परिणाम पा जाते है, क्योंकि परिस्थितिया जो दूसरे मनुष्य द्वारा, प्रकृति के द्वारा या खुद के द्वारा जो पैदा की जाती है, वही कई बार हमें अनचाहा परिणाम दे जाती है, जिसे हम समझ नहीं पाते और भाग्य मान लेते है, और मानना ही पड़ेगा क्योंकि हम कभी भी संपूर्ण ब्रह्माण्ड की परिस्थितियों को अपने बस में नहीं कर सकते! ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियों पर प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है तो निश्चय ही आपका भी है मगर सारी शक्तियां आपके लिए कार्य करें ऐसा न किसी के लिए हुआ है और न होगा चाहे खुद ब्रह्मा ही क्यों न अवतरण ले लें। मगर ये न भूलें कि, एक बार चन्द्रगुप्त ने कहा आचार्य चाणक्य से, जो भाग्य में लिखा होगा वह तो मिलेगा ही, तो चाणक्य ने कहा, क्या पता भाग्य में लिखा हो कि कर्म करने से ही मिलेगा, तो कर्म तो करना ही होगा।

कर्म करें परन्तु जैसा कि आजकल के राजनेताओं के कर्म है वैसा नहीं, उतना अधिक विकल्प पर विचार करना अधिक से अधिक विकल्प को साथ रखना कि फल अवश्य मिले! सदैव मनुष्य को अधर्म के मार्ग पर ले जाता है। नेताओं जैसी सोच कि सत्ता चाहिए ही! यही अधर्म है। जब फल की कामना के लिए मनुष्य आतुर हो जाता है, तो यही अधर्म है। जिसके लिए भाग्य पर भरोसा करना ही धर्म है, वर्ना परिस्थितियों को मनुष्य इतना जटिल कर देगा कि विनाश के सिवा कुछ नहीं बचेगा। आज हम उसी दिशा में प्रयासरत है, हमारे नेता अनेकों रूप से विचार कर सभी विकल्पों को साथ लेकर चलने का प्रयास कर रहे है, जैसे जातिवाद, धर्मवाद, क्षेत्रवाद, भाईभतीजावाद, अलगाववाद विकासवाद,भ्रस्टाचार,गरीबी,रोजगार,शिक्षा इतने से भी काम न चले तो सब्सिडी और मुफ़्त सामग्री और शाधन का लालच आदि आदि, मगर भाग्य को भुलाने की वजह है कि आज की राजनीति गन्दगी से भरी पड़ी है, मेरी कामना यही है कर्म करें और विकल्प भी अधिक रखें मगर अधर्म के मार्ग से नहीं।

सत्यधर्म अपनी जगह होता है मगर खुद जीने के लिए कई बार मनुष्य को सत्य से अड़िग होना पड़ता है, क्योंकि परिस्थितिया होती है जीवन का आधार नीव। नीव से ऊपर उठने के लिए साफ सुथरा बनने के लिए हो सकता है मिट्टी भी लग जाय, मगर यदि नियत ठीक हो तो इस मिट्टी की परवाह किये बगैर आगे बढ़ें!!

दुख, शोक, जब जो आ पड़े, सो धैर्य पूर्वक सब सहो।
होगी सफलता क्यों नहीं कर्त्तव्य पथ पर दृढ़ रहो।।
अधिकार खो कर बैठ रहना, यह महा दुष्कर्म है;
न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना धर्म है।
इस तत्व पर ही कौरवों से पाण्डवों का रण हुआ,
जो भव्य भारतवर्ष के कल्पान्त का कारण हुआ।।
आपको याद होगा महाभारत में जयद्रथ बध के लिए अस्त्र शस्त्र न उठाने का प्रण करनेवाले श्रीकृष्ण को भी सुरदर्शन चक्र उठाकर सूर्य को ढकना पड़ा था।
रामायण में बाली बध के लिए मर्यादापुरुषोत्तम  श्रीराम को छिपकर बाण चलाना पड़ा था। यही होती है परिस्थितिया और धर्म। और यही है जीवन। मगर गन्दगी को मिटाने के प्रयास और नियति का अंत नहीं होने दे! यही है जीवन का आधार और इसी सत्य से मिल सकता है हिन्दुस्तान!! ऐसे लोगों का साथ देना भी अधर्म है जो लोग सारे विकल्प अपने परिणामों पर उपयोग करते है। सारे विकल्पों को चुननेवाला अवश्य ही अधर्मी होता है ऐसे मनुष्य का बध करने में कोई दोष नहीं।

Monday, 20 June 2016

मनुष्य जन्म से अपराधी नहीं होता है।

मनुष्य जन्म से अपराधी नहीं होता है और न अपराधी बनने की किसी में चेष्टा होती है, अपराधी बनाती है परिस्थितिया। फिर तो ऐसा कहना कि मनुष्य परिस्थितियों का दास है कुछ गलत नहीं होगा, होगा यदि मनुष्य भी ऐसा करे तो पशु से वह उत्तम क्यों है?

हम सजा देने में माहिर है और हो भी क्यों नहीं अपने आप को सर्वोत्तम जो समझते है। मगर थोडा समय हो तो सोचें सजा देने से बेहतर यह नहीं होगा कि हम उन परिस्थितियों पर विचार करें सजा उसे क्यों नहीं जो मनुष्य को अपराधी बनाने के लिए उत्पन्न कर रहा है। परन्तु सभी प्रकार की परिस्थितियों पर मनुष्य का अधिकार नहीं तो सजा देगा कैसे? एक बात तो है मनुष्य का यही अन्धापन है जब हराने लगता है तो वहा से तुरंत भाग लेता है और इसीलिए आज हम भारतीय संविधान का गीता की उपाधि देते है मगर कुछ भी हो संविधान गीता नहीं तो गीता बनने का आधार तो है, इसलिए ऐसा कह देना कि इसे कूड़े में डाल दो यही हमारी भूल होगी।

एक हँसते खिलते बचपन को अपराधी बनाने की अनेकों परिस्थितियां हो सकती है, जैसे पिता नसे में लिप्त हो माँ औरों के घर काम कर किसी तरह रोटी कमा पाती हो, बेटे को पढ़ने के लिए स्कूल से अधिक महत्वपूर्ण घर चलाने के लिए रोजगार हो, या स्कूल में कुछ बच्चों के पास आधुनिक सुख सुविधाओं का ढ़ेर लगा हो और दूसरा बच्चा उन सुविधाओं को देख अपने को तुच्छ समझने की भूल करता हो, या बच्चे ने कभी किसी नेता, अभिनेता या पूँजीपति का जलवा देख लिया हो और अतिशीघ्र उस जलवे को प्राप्त करना चाहता हो, या कोई बच्चा हँसी मजाक में अपने साथियों को खुस करने के लिए या अपने को बलशाली दिखाने के लिए दूसरे बच्चे को परेशान करता हो, चिढ़ाता हो, या बच्चा बचपन से अनाथ हो उसे खुद का पेट भरने के लिए लोगों की मार डाट गालियां खानी पड़ती हो, आदि आदि परिस्थितियां हो सकती है। मगर कुछ भी हो अपराधी तो इन परिस्थितियों को पैदा करनेवाला ही है। चाहे वह मनुष्य हो या प्रकृति हो या शासन व्यवस्था सरकार। अदालतों में सजा मनुष्य को देते समय इन परिस्थितियों को भी सजा देना होगा तब संविधान गीता के समकक्ष होगा और समकक्ष क्यों यही तो है गीता।

एक संवृद्ध शक्तिशाली संविधान बनाने के लिए इन परिस्थितियों पर विजय पाने के लिए हमें व्यक्तित्व निर्माण करना होगा और व्यक्तित्व निर्माण बचपन निर्माण से होगा, इसलिए सबसे पहले स्कूलों की व्यवस्था में नवीनीकरण करना होगा। हमें परिवर्तन करना होगा हमने पिछले दिनों में बदलाव किया बदलाव का अर्थ होता है चेंज बुरा भी और अच्छा भी,मगर परिवर्तन का अर्थ होता है चेंज सिर्फ अच्छा ही। हमने जो चेंज किया गुरुकुल से हटकर स्कूलों में यही तो अपराध की जननी है परन्तु इस बदलाव के लिए हम जिम्मेदार नहीं क्योंकि उस समय परिस्थितियों ने हमें ऐसा करने पर मजबूर किया तभी तो हम आगे बढ़ने के बजाय पीछे चले गए गुरुकुल से स्कूल पर आ गए, और आज भी परिस्थितियां इतनी आसान नहीं जब आप नवीनीकरण की बात करेंगे तो कुछ अज्ञानी लालची लोभी असामाजिक लोग इसे भगवाकरण का नाम दे विरोध जताएंगे मगर उन्हें भी सोचना होगा परिवर्तन कोई भगवाकरण नहीं और यदि भगवाकरण से ही परिवर्तन संभव है तो इसमे बुरा क्या है? बिना ऐसा किये आपही बताएं बचपन निर्माण कैसे होगा? आप जिस संस्कृति को अपनाने की वकालत करते है वहा के स्कूलों में ढिशूम ढिशूम गोलियां चलती है, बारह पंद्रह साल की बच्चियां गर्भवती हो जाती है, क्या आप ऐसा व्यक्तित्व निर्माण चाहते है? इसी माहौल ने आज भारत के टुकड़े टुकड़े किये है और टुकड़े ना हो इसके लिए सुदृढ़ संविधान का शीघ्र निर्माण हो यही हमारी कामना है।

जिस तरह चेंज हुआ गुरुकुल से स्कूल का उसी तरह न्याय से हम भटक गए संविधान में, चले थे भगवान बनने बन गए पैग़म्बर। हमारी संस्कृति उस न्याय की है जो न्याय, वह न्याय, जहाँ पक्षपात न हो जहाँ न्यायाधीश न्याय करते समय अपने बेटे, बीबी, भाई, जाति,धर्म, पिता,गुरु आदि किसी का भी ध्यान न रखे, बस न्याय तो न्याय करे। मजे की बात यह है कि हम जानते है कि हमारा संविधान पक्षपात पूर्ण है, इस संविधान में जाति का जिक्र है, धर्म का जिक्र है, नेता का जिक्र है, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री आदि आदि का जिक्र है, जिसके नाम पर न्याय संग पक्षपात होता है, जब कोई नेता लाखों की सैलरी, अन्य सभी सुविधाएं फ्री, बिना टैक्स दिए, लेता है तो ईर्श्या होती है, मगर धर्म के नाम पर चार औरतों के साथ अन्याय करने में मजा आते समय सब कुछ भूल जाता है,सत्य तो पसंद है मगर सत्य का सामना करना कोई नहीं चाहता, शाहस करें! पक्षपात ऐसा मीठा जहर है जो जीने भी नहीं देता और मरने भी नहीं देता, फिर भी परिवर्तन नहीं चाहते, पता नहीं किस गुमान में भटके पड़े है, भाई अहंकार छोड़ो! इसी तरह का अहंकार कभी नोकिया मोबाइल कंपनी, अम्बेडकर फिएट कार कंपनी, पादरी धर्मवालों आदि लोगों को भी था, मगर क्या हुआ? नहीं परिवर्तन किया, नहीं किया इनोवेसन, नहीं किया नवीनीकरण, तो आज समय ने उन्हें संसार से बाहर कर दिया, यदि आप भी बाहर जाने को तैयार बैठे हो तो कोई बात नहीं वर्ना समय है, परिवर्तन के लिए कमर कसें और परिवर्तन का सहभागी बने!