शाम आई थी रात की घटा भी छाई थी,
चाँद भी चमक रहा आँख टिमटिमाई थी,
दिखरहे थे जुगनू और तारे भी चमक रहे,
भूख थी गजब मगर रसोई ना महक रहे,
छुप रहे थे लोग सब मैं खड़ा अकेला था,
कौन सी डगर चलूँ पर ना कोई सहेला था,
एक के बाद एक अनेकों रास्तों का परिचय,
जिसकी तलास थी उसके न मिलने की संसय,
आसुओ क्यूँ बेवजह निकल मजाक उड़ाती हो,
जब मैं तन्हा हो जाऊ तब क्यू नहीं आती हो,
दर्द तो दर्द था मगर सफ़र भी कुछ हम न था,
संकल्प छोड़ा नहीं क्योंकि विकल्प कम न था,
मुझे क्या पता था कि राह में आप मिल जाओगे,
जिन अंधेरो में गुम था उसका रास्ता बताओगे,
सुबह हुई तब भी आसुओ ने साथ नहीं छोड़ा,
तब गम के आँसू थे पर ख़ुशी ने नाता ना तोडा,
हरवक्त में अपने आप से इन्ही का साथ होता है,
बेवजह ही इंसान हालात से लड़े बिन रोता है,
रविवार या मंगलवार ना किसी के रंग अलग,
मजाक हो या तारीफ़ किसी के ना ढंग अलग,
होते है जब दुःख के आंसू तब बातें मजाक लगती,
सफलता मिली नहीं कि यही तारीफ़ बनके ठगती,
बावला इंसान न समझा और न समझ पायेगा,
जीत हार की लागी है ये भी समय निकल जायेगा।।
Friday, 12 August 2016
जीत हार की लागी है ये समय भी निकल जायेगा।
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