हर व्यक्ति अपने विचारों और संस्कारों के अनुरूप ही शिक्षा पाता है और प्रगति करता है।
एक कक्षा में लगभग 60 छात्र होते है शिक्षक एक ही शिक्षा देता है मगर कोई पीएम कोई डीएम कोई चपरासी आदि तो कोई वेरोजगार हो जाता है।
जाकी रही भावना जैसी। हरि मूरत देखी तिन तैसी।।
जब अंगद ने रावण को समझाते हुए अंत में कहा-
जौ मम चरण सकसि सठ टारी। फिरहिं राम सीता मैं हारी।।
इस चौपाई का अनेक विद्वान अनेक अर्थ लगाते है, कोई कहता है कि अंगद ने कहा यदि मेरा पैर कोई हटा देगा तो श्रीराम वापस चले जाएंगेऔर सीता माता को मैं हार जाऊँगा।
मगर सोचने की बात है अंगद का सीता माता पर इतना अधिकार कैसे? इसलिए कुछ विद्वान कहते है कि अंगद ने कहा फिरहिं राम और सीता मैं हार मान लूँगा।
दूसरा उदाहरण- एक कवि हलवाई की दुकान पर बैठकर चाय पी रहा था तभी एक कौआ हलवाई के बर्तन में तेजी से चोंच मार दही खाने की कोशिश की... लेकिन हलवाई ने तुरंत पौना उठाकर कौए पर चला दिया और कौए की मृत्यु हो गई। यह दृश्य देख कवि उठा हलवाई की भट्ठी के पास से कोयले का टुकड़ा उठाया और दीवाल पर लिख दिया-
काग दही में जान गवायो।
थोड़ी देर में एक क्लर्क आया वह दिन रात कागजी कार्य में व्यस्त रहता था प्रतिदिन उसका बॉस उसे डाँटता रहता था, उसने पढ़ा-
कागद में ही जान गवायो।
एक व्यक्ति की बीबी भाग गई थी दिन रात सालों तक खोजने के बाद नही मिली जब वह आया तो पढ़ा-
का गदही में जान गवायो।
कहने का तात्पर्य अच्छे संस्कार और ऊंचे विचार से ही मनुष्य संकल्प पूरा कर सकता है, विकल्प बदलकर नही।
एक और उदाहरण पढें!
एक राजा को राज भोगते काफी समय हो गया था। बाल भी सफ़ेद होने लगे थे। एक दिन उसने अपने दरबार में उत्सव रखा और अपने गुरुदेव एवं मित्र देश के राजाओं को भी सादर आमन्त्रित किया । उत्सव को रोचक बनाने के लिए राज्य की सुप्रसिद्ध नर्तकी को भी बुलाया गया।
सारी रात नृत्य चलता रहा। ब्रह्म मुहूर्त की बेला आयी। नर्तकी ने देखा कि मेरा तबले वाला ऊँघ रहा है और तबले वाले को सावधान करना ज़रूरी है, वरना राजा का क्या भरोसा दंड दे दे।
तो नर्तकी ने यह कविता कही-
बहु बीती थोड़ी रही पल पल गई बिताय।
एक पल के कारने ना कलंक लगि जाय।।
अब इस दोहे का दरबार में उपस्थित सभी व्यक्तियों ने अपनी-अपनी सोच के अनुरुप अलग-अलग अर्थ निकाला। तबले वाला सतर्क हो गया।
राजा के गुरु ने समझा कि मैं सारी उम्र जंगलों में भक्ति करता रहा और आखिरी समय में नर्तकी का मुज़रा देखकर अपनी साधना नष्ट करने यहाँ चला आया हूँ,भाई ! मैं तो चला। यह कहकर गुरु जी तो अपना कमण्डल उठाकर जंगल की ओर चल पड़े।
राजा की लड़की ने समझा कि जल्दबाजी मत कर कभी तो तेरी शादी होगी ही । क्यों अपने पिता को कलंकित करने पर तुली है ?
राजा के लड़के ने समझा कि आज नहीं तो कल आखिर राज तो तुम्हें ही मिलना है, क्यों अपने पिता के खून का कलंक अपने सिर पर लेता है, धैर्य रख!
राजा ने सबसे इसका अर्थ पूछा और जब ये सब बातें सुनी तो राजा को भी आत्म ज्ञान हो गया। राजा के मन में वैराग्य आ गया। राजा ने तुरन्त फैसला लिया - लड़की की शादी कर दी लड़के का राजतिलक और खुद बैरागी बन गया।
कविता तो एक ही थी परंतु जिसने जैसा चाहा वैसा ही फल मिला।
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